Ishwar Chandra Vidyasagar Biography in Hindi
ishwar chandra vidyasagar stories in hindi |
Biography ishwar chandra vidyasagar
इनका बचपन बेहद गरीबी में बिना आधारभूत सुविधाओं के बीता है, लेकिन विघासागर
एक होनहार छात्र थे। वो हमेशा सड़को की रोशनियों में पढ़ा करते थे क्योंकि उनके घर
में रोशनी नहीं थी।
स्कूल और कॉलेजों में असाधारण प्रदर्शन करने की वजह से उन्हें
ढेर सारी छात्रवृत्ति प्राप्त होती थी। साथ ही अपनी और अपने परीवार की मदद के लिए
जो अंशकालीन अध्यापन भी किया करते थे।
कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज से विघासागर ने
साहित्य, संस्कृत व्याकरण, कानून और खगोल विघा की पढ़ाई की। विघासागर बहुत ही
हिम्मती समाज-सुधारक थे जो किसी भी सामाजिक बुराई के खिलाफ लड़ने से नहीं घबराते
थे।
पिता का नाम- |
ठाकुरदास
बंघोपाध्याय
|
माता का
नाम-
|
भगवती देवी
|
नाम-
|
ईश्वर
चन्द्र विघासागर
|
इनकी पत्नी
का नाम-
|
दीनामणि
देवी
|
इनकी भाषा-
|
बंगाली
|
इनका पुत्र-
|
नारायण
चन्द्र बंघोपाध्याय
|
जन्म समय-
|
26 जुलाई
सन्-1820
|
जन्म स्थान-
|
बंगाल
|
मृत्यु समय-
|
29 जुलाई
सन्-1891 आयु-70
|
आन्दोलन-
शिक्षा-
|
बंगाल का
पुनर्जागरण करना
संस्कृत
विघालय
|
सामज सुधारक:-
इनका मुख्य योगदान महिलाओं की स्थिति को ऊपर उठाने में था। ये विधाव विवाह के बहुत बड़े समर्थक रहे है। उन दिनों विधवाओं की स्थिति हिन्दुओं में बहुत ही दयनीय भयानक थी, महिलाओं के सम्मान के लिए विघासागर ने लगातार कार्य किया।
इसके लिए इन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून बनाने की बात भी की। इस वजह
से विधवा पुनर्विवाह एक्ट 1856 पास हुआ जिसने विधवाओं को दुबारा शादी करने की
आजादी दी साथ ही उनसे होने वाले बच्चे को सही ठहराया था।
उन्होंने बहुविवाह प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ भी आवाज उठायी और कहा कि
हिन्दू धर्म ग्रंथों में कही भी ये उल्लिखित नहीं हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में विघासागर का योगदान विशाल रहा है। अपनी प्रसिद्ध किताब “बर्नो पौरितय” (अक्षरों का परिचय) को
आसान बनाने के द्वारा आम जन के लिए बंगाली भाषा को शुद्ध किया और इसकी पहुँच
बनायी। ये किताब आज भी बंगाली भाषा में उत्कृष्ट मानी जाती हैं।
विघासागर अपनी दयालुता के लिए भी प्रसिद्ध थे। वो हमेशा गरीब लोगों की मदद के
लिए तैयार रहते थे। जो सड़को के किनारे रहते थे।
विघासागर जी ने राजा राम मोहन रॉय
के शुरू किये गए समाज सुधार को जारी रखा था तथा ब्रह्म समाज की गतिविधियों के साथ
बनाये रखा। 18 जुलाई सन् 1891 को कलकत्ता में इनकी मृत्यु हो गयी थी।